हाँ मैं वही आदिवासी हूँ,
जो आरक्षण के नाम पर छला जाता हूँ।
गांव, गली , कूचे-कूचे में, हिरवा कुलथी की तरह भूनकर दला जाता हूँ ।
बडी-बडी कंपनियों को बडा-बडा अनुदान, लेकिन मैं परियोजना, उधारी और लोन में फंसा जाता हूँ।
हाँ मैं वही आदिवासी हूँ, जिस पर राजनीति गन्दी, बलात् नसबंदी होती है।
मेरे विकास के सपने देखते दलाल हैं, विकास उन्ही का होता, मैं तो बस उनका ढाल हूँ।
हाँ मैं वही आदिवासी हूँ, जो आरक्षण के नाम पर, स्वतंत्रता के सत्हत्तर साल बाद भी ठगा जाता हूँ।
मुझे संस्कृति, सभ्यता और परंपराओं को संजोए रखना है, विकास की राह पर निरंतर चलते ही जाना है।
आखिर कब तक औरों से छला जाऊंगा, बाधाएँ आती हैं, आएंगी, बाधाओं को लांघकर विकास की शीर्ष तक जाऊंगा।
हां मैं वही आदिवासी हूँ, जिसके सीने में जान है, आत्मसम्मान है, सांस्कृतिक पहचान है, परंपरा और ईमान है,आखिर कब तक बस्तर में दो पाटों के बीच पिसा जाऊंगा।
समय आ चुका , अब हुंकार भरना है, आदिवासी- आदिवासी में भेद नहीं करना, एकता की मिसाल कायम करना है।
भाईयों हम एक हैं, हमें एक होकर चलना है।
(कोमल हुपेण्डी)
जो आरक्षण के नाम पर छला जाता हूँ।
गांव, गली , कूचे-कूचे में, हिरवा कुलथी की तरह भूनकर दला जाता हूँ ।
बडी-बडी कंपनियों को बडा-बडा अनुदान, लेकिन मैं परियोजना, उधारी और लोन में फंसा जाता हूँ।
हाँ मैं वही आदिवासी हूँ, जिस पर राजनीति गन्दी, बलात् नसबंदी होती है।
मेरे विकास के सपने देखते दलाल हैं, विकास उन्ही का होता, मैं तो बस उनका ढाल हूँ।
हाँ मैं वही आदिवासी हूँ, जो आरक्षण के नाम पर, स्वतंत्रता के सत्हत्तर साल बाद भी ठगा जाता हूँ।
मुझे संस्कृति, सभ्यता और परंपराओं को संजोए रखना है, विकास की राह पर निरंतर चलते ही जाना है।
आखिर कब तक औरों से छला जाऊंगा, बाधाएँ आती हैं, आएंगी, बाधाओं को लांघकर विकास की शीर्ष तक जाऊंगा।
हां मैं वही आदिवासी हूँ, जिसके सीने में जान है, आत्मसम्मान है, सांस्कृतिक पहचान है, परंपरा और ईमान है,आखिर कब तक बस्तर में दो पाटों के बीच पिसा जाऊंगा।
समय आ चुका , अब हुंकार भरना है, आदिवासी- आदिवासी में भेद नहीं करना, एकता की मिसाल कायम करना है।
भाईयों हम एक हैं, हमें एक होकर चलना है।
(कोमल हुपेण्डी)